ठेंगा रामजी नेता हैं और नेता उद्घाटन न करे तो वो कैसा नेता। शायद उन जैसे नेताओं के लिए ही भगवद गीता में लिखा गया है
कर्मण्ये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन ।
आप उद्घाटन किये जाऐं, काम समाप्त होगा या नहीं इसकी चिंता न करें। सौभाग्यवश काम पूरा हो गया चाहे वो किसी के भी द्वारा किया गया हो तो आप वापस उसका उद्घाटन करने जरूर पहुँच जायें।
शहर के हालत ऐसे हैं की पुल तो बनते नहीं, शिलान्यास के पथरों की कतारें खड़ी हो जाती हैं। इतने शिलान्यास पत्थरों से ही दो चार पुल बन जाएँ । अगर पुल बन भी जाता है तो उसका अलग अलग नेता अपने रसूख के हिसाब से उद्घाटन कर देते हैं । कई बार तो पुल का उद्घाटन एक नेता बायीं ओर से करता है और दूसरा दाईं और से और एक ही समय पर।
ठेंगा रामजी भी उद्घाटन के बड़े शौक़ीन है। दिन में दो चार उद्घाटन तो कर ही लेते हैं। प्रशासन को सख्त निर्देश हैं की कोई भी काम शुरू होने से पहले उसका उद्घाटन ठेंगा रामजी के हाथों होना बेहद जरूरी है। चुनाव नजदीक आने लगते हैं तो उद्घाटन करने की रफ़्तार तेज हो जाती है। कभी कभी तो शिलान्यास के पत्थरों की कमी की वजह से ब्लैकबोर्ड में ही लिख कर उद्घाटन कर दिया जाता है। इससे सहूलियत ये हो जाती है की अगली बार दुबारा उद्घाटन करने में केवल तारीख को बदलना पड़ता है। नेताजी का बस चले तो हर दिन वो सूरज और चाँद के उगने का भी उद्घाटन कर दें।
कभी कभी कर्मचारियों का उतावलापन भी अजीब परिस्थितियां पैदा कर देता है। एक दिन नेताजी के दफ्तर में फ़ोन आया
"नेताजी ठेंगा राम से बात हो सकती है ," फ़ोन के दूसरी तरफ़ एक महिला थी।
फ़ोन ऑपरेटर ने पुछा , "आपको किस सिलसिले में बात करनी है? "
"जी, नेताजी के हाथों उद्घाटन करवाना है ," महिला ने उत्तर दिया।
चुनाव का समय नजदीक है। उद्घाटन शब्द शहद की तरह फ़ोन ऑपरेटर के हलक से उतर गया। शीघ्र महिला के फ़ोन को नेताजी के पर्सनल सेक्रेटरी के पास ट्रांसफर कर दिया गया।
"जी कहिये, कहाँ और क्या उद्घाटन करना है?" सेक्रेटरी साहब ने भरे पान मुँह से पुछा।
"जी हम लोग मैराथन का आयोजन कर रहे हैं और चाहते हैं की नेताजी उसे हरी झंडी दिखाएँ ," महिला ने अपनी बात रखी।
"देखिये उद्घाटन के लिए पार्टी फण्ड में एक लाख रूपये देने होंगे।" सेक्रेटरी बोले।
"सर, एक लाख तो हम दे नहीं पाएंगे। बजट नहीं है। अगर नेताजी नहीं आ पाएंगे तो हम नेताजी भुल्लकड़ राम को बुला लेंगे। अब ठेंगा रामजी बड़े नेता हैं मगर हमें भी अपनी हैसियत के हिसाब से चलना पड़ेगा। " चुनाव के मौसम में विपक्ष का नाम लेना दुखती रग को पकड़ने जैसा हो जाता है।
"ठीक है,नेताजी आ जायेंगे। अब खेल प्रतियोगिता है और नेताजी खेलों के बहुत शौक़ीन हैं तो उन्हें मैं मना लूँगा।" सेक्रेटरी चुनाव के समय किसी भी जन संपर्क के मौके को गवाना नहीं चाहते। "लेकिन ध्यान रखियेगा, की कम से कम दस हज़ार की भीड़ होनी चाहिए। और खाने पीने का बढ़िया इंतज़ाम।" सेक्रेटरी साहब अपने गुम्बद जैसी तोंद पर हाथ फेरते हुए बोले। "और हाँ कूलर का स्टेज पर बंदोबस्त होना चाहिए। " सेक्रेटरी साहब ने शर्तों का चिट्ठा पकड़ा दिया।
"जी सर, चिंता मत कीजियेगा। भीड़ कम से कम बीस हजार की होगी। हम काफी विज्ञापन कर रहे हैं।" महिला ने जवाब दिया। बीस हजार सुन कर सेक्रेटरी के चेहरे पर मुस्कान आ गयी।
तय दिन मंत्रीजी अपने सेक्रेटरी और बाकी ताम झाम के साथ उस जगह पहुँच गए जहाँ से मैराथन शुरू होनी थी। वहां पर कहीं दूर दूर तक किसी भी तरह के आयोजन का कोई नामो निशान नजर नहीं आ रहा था। सेक्रेटरी के माथे में पसीना आ गया। नेताजी भी गुस्से में आ गए। सेक्रेटरी ने आयोजकों के नंबर में कॉल किया मगर हर नंबर पर एक ही मैसेज "यह नंबर पहुँच से बहार है। "
तभी सेक्रेटरी के फ़ोन बजने लगा। दूसरी ओर से वही महिला की आवाज थी।
"सर, नेताजी पहुँच गए उद्घाटन के लिए। " महिला ने पूछा।
"ये क्या बेहूदा मजाक है?" सेक्रेटरी गुस्से से तमतमा उठे। "आप लोगों को टीम कहाँ है?" इस बीच नेताजी ने भांप लिया की फ़ोन आयोजकों का है और उन्होंने फ़ोन को स्पीकर में डालने का इशारा किया।
"सर, हम माफ़ी चाहते हैं। " महिला ने वापस शालीनता से जवाब दिया। "हम तो मैराथन कराना चाहते थे मगर मैदान मिला ही नहीं। नेताजी ने पिछले चुनावों में वादा किया था की वह जिस आयोजन स्थल पर आप खड़े हैं, वहां एक बड़ा सा खेल का मैदान बनाएंगे। हम आज सवेरे तक भी मैदान का इंतज़ार करते रहे मगर मैदान नहीं बना तो हमें प्रोग्राम को कैंसिल करना पड़ा।"
सेक्रेटरी और नेताजी एक दुसरे का मुँह ताकने लगे। अगल बगल भी अब तक काफी भीड़ इकठ्ठा हो गयी थी।
नेताजी ने अपने चेलों को इशारा किया और नेताजी की जय जयकार शुरू हो गयी। आनन फानन में एक स्टेज तैयार कर दिया गया और नेताजी ने खेल के महत्व पर एक लम्बा भाषण भी दे डाला। वो बात अलग है की स्टेज में चढ़ने के लिए नेताजी की कमर को चार लोगों का सहारा लेना पड़ा। जय लोकतंत्र।
कर्मण्ये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन ।
आप उद्घाटन किये जाऐं, काम समाप्त होगा या नहीं इसकी चिंता न करें। सौभाग्यवश काम पूरा हो गया चाहे वो किसी के भी द्वारा किया गया हो तो आप वापस उसका उद्घाटन करने जरूर पहुँच जायें।
शहर के हालत ऐसे हैं की पुल तो बनते नहीं, शिलान्यास के पथरों की कतारें खड़ी हो जाती हैं। इतने शिलान्यास पत्थरों से ही दो चार पुल बन जाएँ । अगर पुल बन भी जाता है तो उसका अलग अलग नेता अपने रसूख के हिसाब से उद्घाटन कर देते हैं । कई बार तो पुल का उद्घाटन एक नेता बायीं ओर से करता है और दूसरा दाईं और से और एक ही समय पर।
ठेंगा रामजी भी उद्घाटन के बड़े शौक़ीन है। दिन में दो चार उद्घाटन तो कर ही लेते हैं। प्रशासन को सख्त निर्देश हैं की कोई भी काम शुरू होने से पहले उसका उद्घाटन ठेंगा रामजी के हाथों होना बेहद जरूरी है। चुनाव नजदीक आने लगते हैं तो उद्घाटन करने की रफ़्तार तेज हो जाती है। कभी कभी तो शिलान्यास के पत्थरों की कमी की वजह से ब्लैकबोर्ड में ही लिख कर उद्घाटन कर दिया जाता है। इससे सहूलियत ये हो जाती है की अगली बार दुबारा उद्घाटन करने में केवल तारीख को बदलना पड़ता है। नेताजी का बस चले तो हर दिन वो सूरज और चाँद के उगने का भी उद्घाटन कर दें।
कभी कभी कर्मचारियों का उतावलापन भी अजीब परिस्थितियां पैदा कर देता है। एक दिन नेताजी के दफ्तर में फ़ोन आया
"नेताजी ठेंगा राम से बात हो सकती है ," फ़ोन के दूसरी तरफ़ एक महिला थी।
फ़ोन ऑपरेटर ने पुछा , "आपको किस सिलसिले में बात करनी है? "
"जी, नेताजी के हाथों उद्घाटन करवाना है ," महिला ने उत्तर दिया।
चुनाव का समय नजदीक है। उद्घाटन शब्द शहद की तरह फ़ोन ऑपरेटर के हलक से उतर गया। शीघ्र महिला के फ़ोन को नेताजी के पर्सनल सेक्रेटरी के पास ट्रांसफर कर दिया गया।
"जी कहिये, कहाँ और क्या उद्घाटन करना है?" सेक्रेटरी साहब ने भरे पान मुँह से पुछा।
"जी हम लोग मैराथन का आयोजन कर रहे हैं और चाहते हैं की नेताजी उसे हरी झंडी दिखाएँ ," महिला ने अपनी बात रखी।
"देखिये उद्घाटन के लिए पार्टी फण्ड में एक लाख रूपये देने होंगे।" सेक्रेटरी बोले।
"सर, एक लाख तो हम दे नहीं पाएंगे। बजट नहीं है। अगर नेताजी नहीं आ पाएंगे तो हम नेताजी भुल्लकड़ राम को बुला लेंगे। अब ठेंगा रामजी बड़े नेता हैं मगर हमें भी अपनी हैसियत के हिसाब से चलना पड़ेगा। " चुनाव के मौसम में विपक्ष का नाम लेना दुखती रग को पकड़ने जैसा हो जाता है।
"ठीक है,नेताजी आ जायेंगे। अब खेल प्रतियोगिता है और नेताजी खेलों के बहुत शौक़ीन हैं तो उन्हें मैं मना लूँगा।" सेक्रेटरी चुनाव के समय किसी भी जन संपर्क के मौके को गवाना नहीं चाहते। "लेकिन ध्यान रखियेगा, की कम से कम दस हज़ार की भीड़ होनी चाहिए। और खाने पीने का बढ़िया इंतज़ाम।" सेक्रेटरी साहब अपने गुम्बद जैसी तोंद पर हाथ फेरते हुए बोले। "और हाँ कूलर का स्टेज पर बंदोबस्त होना चाहिए। " सेक्रेटरी साहब ने शर्तों का चिट्ठा पकड़ा दिया।
"जी सर, चिंता मत कीजियेगा। भीड़ कम से कम बीस हजार की होगी। हम काफी विज्ञापन कर रहे हैं।" महिला ने जवाब दिया। बीस हजार सुन कर सेक्रेटरी के चेहरे पर मुस्कान आ गयी।
तय दिन मंत्रीजी अपने सेक्रेटरी और बाकी ताम झाम के साथ उस जगह पहुँच गए जहाँ से मैराथन शुरू होनी थी। वहां पर कहीं दूर दूर तक किसी भी तरह के आयोजन का कोई नामो निशान नजर नहीं आ रहा था। सेक्रेटरी के माथे में पसीना आ गया। नेताजी भी गुस्से में आ गए। सेक्रेटरी ने आयोजकों के नंबर में कॉल किया मगर हर नंबर पर एक ही मैसेज "यह नंबर पहुँच से बहार है। "
तभी सेक्रेटरी के फ़ोन बजने लगा। दूसरी ओर से वही महिला की आवाज थी।
"सर, नेताजी पहुँच गए उद्घाटन के लिए। " महिला ने पूछा।
"ये क्या बेहूदा मजाक है?" सेक्रेटरी गुस्से से तमतमा उठे। "आप लोगों को टीम कहाँ है?" इस बीच नेताजी ने भांप लिया की फ़ोन आयोजकों का है और उन्होंने फ़ोन को स्पीकर में डालने का इशारा किया।
"सर, हम माफ़ी चाहते हैं। " महिला ने वापस शालीनता से जवाब दिया। "हम तो मैराथन कराना चाहते थे मगर मैदान मिला ही नहीं। नेताजी ने पिछले चुनावों में वादा किया था की वह जिस आयोजन स्थल पर आप खड़े हैं, वहां एक बड़ा सा खेल का मैदान बनाएंगे। हम आज सवेरे तक भी मैदान का इंतज़ार करते रहे मगर मैदान नहीं बना तो हमें प्रोग्राम को कैंसिल करना पड़ा।"
सेक्रेटरी और नेताजी एक दुसरे का मुँह ताकने लगे। अगल बगल भी अब तक काफी भीड़ इकठ्ठा हो गयी थी।
नेताजी ने अपने चेलों को इशारा किया और नेताजी की जय जयकार शुरू हो गयी। आनन फानन में एक स्टेज तैयार कर दिया गया और नेताजी ने खेल के महत्व पर एक लम्बा भाषण भी दे डाला। वो बात अलग है की स्टेज में चढ़ने के लिए नेताजी की कमर को चार लोगों का सहारा लेना पड़ा। जय लोकतंत्र।
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