Sunday, January 6, 2019

मिज़ाज राजनीती का



शांतचित्त होकर जनता देख रही है। जनता सुबह उठती है। पानी भरना होता है क्योंकि पानी घंटे भर के लिए ही आता है। साथ ही चाय की केतली में भी उबाल आ रहा होता है। दूध भी पतीले से बहार निकलने को उतावला हो रहा होता है। नाश्ता भी बनाना है और टिफ़िन भी तैयार करने हैं। नहाने के लिए पानी गर्म करना  है। पहले बच्चे तैयार होते हैं फिर बड़े होंगे। जिस दिन बिजली नहीं उस दिन गैस के ऊपर ही पानी गर्म करना पड़ेगा। उसे बाथरूम तक पहुँचाना भी अपने में कला है।

इस बीच अख़बार आ जाता है। तिरछी नज़र से देख लेते हैं। घोटालों से भरा है और आरोप प्रत्यारोपों की झड़ी है। समझ में नहीं आता है कौन सही है या कौन गलत। इस बीच कोई टीवी शुरू कर देता है। न्यूज़ चैनल में बाबाओं का बोलबाला है। हर कोई आपको अपना दिन कैसे सही कर सकते हैं की घुट्टी पिलाने में लगा हुआ है। इस रंग के कपड़े पहनिए, उस रंग का रूमाल रखिये। अब हमारे पास अकबर महाराज के जैसा वस्त्रों भंडार तो नहीं है। जो धुले होंगे और जो प्रेस होकर आ गए उन्हें ही पहनना पड़ता है।

फिर दौड़ते दौड़ते बस पकड़ ली। बैठने की जगह तो आज तक नहीं मिली अब क्या मिलेगी। वैसे भी देश की जनसँख्या बढ़ ही रही है। टीवी वाले पण्डितिजी बाकि छोड़, बस में सीट मिलने का ही नुस्खा बता देते तो हम भी उनके भक्त हो जाते। सफर में राजनितिक चर्चा आम रहती है। कौन नेता ईमानदार और कौन बईमान? जो काम हो रहे हैं वह वाकई में काम कर रहे हैं या घोटाले कर रहे हैं। इतनी जटिलता हमें समझ में नहीं आती। कुछ होते हैं जो मेहनत कर सब कुछ पढ़ते और समझते हैं और फिर सबको समझाने में भी लगे रहते हैं। उनमें से भी ज्यादातर confirmation bias ( पूर्वाग्रह) के शिकार होते हैं तो उनके तथ्य जो भी हैं, निष्कर्ष पहले से ही तय होता है। हम तो बस एक ही निष्कर्ष निकालने की कोशिश करते रहते हैं की फलां नेता अच्छा है या ख़राब। इससे आगे न तो हममे समझने की क्षमता है और ना ही समय। जिस दिन जिस तरह के भक्त मिल जाते हैं, उस दिन उनके नेता हमारे भगवान बन जाते हैं।

दिनभर तो ऑफिस के काम की भागदौड़ में ही निकल जाता है। खाने के मेज पर या चाय के समय वापस कोई भक्त हमारे विचारों में फिर परिवर्तन ला देता है। थक हारकर घर पहुंचते हैं तो चिंता सब्जी और अनाज की रहती है या फिर बच्चों के लिए स्कूल का कोई सामान खरीदना है। टीवी में थोड़ी देर के लिए न्यूज़ लगाओ तो लोग बस चिल्लाते ही नजर आते हैं। इससे शांत तो डिस्कवरी वाले हाथी और शेर रहते हैं। सास बहु भी बढ़िया है, कमसे कम दुविधा तो नहीं पैदा करते। यह भी पता चल जाता है की कौन विलेन है और कौन हीरो!

हम सब एक चुनाव से दूसरे चुनाव में एक लहर से दूसरी लहर पर गोते खाते रहते हैं। फिर इलेक्शन का दिन आ जाएगा। हर जगह शोर रहेगा। उस शोर में हम अपने सवाल का जवाब ढूँढ़ते रहेंगे। ऊपर से जाती और धर्म को लेकर अलग दुविधा। उस दिन जिसके भक्त की बात दिमाग में रह जाएगी वही हमारा वोट पा जायेगा। बस यही कहानी है एक आम वोटर की।

संसद में बहस

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