ईमान आबरू सब बहुत कीमती थे
बड़े सहेज के हमने संभाल के रखे थे
फिर एक दिन उनका भी खरीददार मिल गया
जो एक बार बिका तो बिकता ही चला गया
पत्थर की लकीर समझते थे हम
जो एक बार कहा बस कह दिया
फिर ज़माने ने जो सच्चाई दिखाई
लकीर पे छैनी रख पत्थर ही तोड़ दिया
बेआबरू होने की अब परवाह नहीं
बेअदब भी जमाना हो चला है
बस प्याला मिलता रहे मै से लबालब
बाकी सब बस एक हसीन फ़साना है
बाकी सब बस एक हसीन फ़साना है
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