Monday, February 20, 2017

शहरों की जिंदगी



शहरों के मकान इधर शुरू उधर ख़त्म 
उन चार दीवारों में गुम सी जिंदगी
हँसी जो होठों में सिमट जाती है
आँसू जो आखों में सूख जाते हैं


सपनों का राजकुमार फँस जाता है
मच्छरों को रोकने की ज़ालियों में
बुलंद जरूर है मेरी रहवाशी मंज़िल
मगर सपनों तक नहीं पहुँच पाती

एक ख्वाब था मेरा शहर जीतने का
आजकल हर हार मैं जीत ढूंड लेता हूँ
या फिर भ्रम पैदा कर लेता हूँ
की मैं आज भी जिंदा रहता हूँ

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