शहरों के मकान इधर शुरू उधर ख़त्म
उन चार दीवारों में गुम सी जिंदगी
हँसी जो होठों में सिमट जाती है
आँसू जो आखों में सूख जाते हैं
सपनों का राजकुमार फँस जाता है
मच्छरों को रोकने की ज़ालियों में
बुलंद जरूर है मेरी रहवाशी मंज़िल
मगर सपनों तक नहीं पहुँच पाती
एक ख्वाब था मेरा शहर जीतने का
आजकल हर हार मैं जीत ढूंड लेता हूँ
या फिर भ्रम पैदा कर लेता हूँ
की मैं आज भी जिंदा रहता हूँ
बुलंद जरूर है मेरी रहवाशी मंज़िल
मगर सपनों तक नहीं पहुँच पाती
एक ख्वाब था मेरा शहर जीतने का
आजकल हर हार मैं जीत ढूंड लेता हूँ
या फिर भ्रम पैदा कर लेता हूँ
की मैं आज भी जिंदा रहता हूँ
No comments:
Post a Comment